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Essay on Indian Agriculture

भारतीय कृषि




 धरती रंगल आवे धानी रंग चुनरिया 

इहे हउवे भारत मोरा देश हो।

सोने का चिरैया इ देशवा कहाला 

इहे हउवे भारत मोरा देश 

यह गीत भारत के लहलहाते हरे-भरे खेत को दर्शाता है जो राष्ट्र की उन्नति से आगाह कराता है परंतु क्या वास्तव में भारत की कृषि संतोषजनक है? तो आइए जानते हैं इस बारे में-

भारत गांवों में बसता है। 

भारतीय अर्थव्यवस्था की आत्मा कृषि है

                                               - महात्मा गांधी 

           वर्तमान में भारत के 135 करोड़ जनसंख्या का 50% आबादी रोजगार मे प्रत्यक्ष रूप  से कृषि पर निर्भर है।भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान लगभग 16% है। देश की पूरी आबादी को निवाला देने वाली कृषि जो आज कई समस्याओं से घिरी हुई है।

           एक किसान दिन-रात कमरतोड़ मेहनत करके किसी तरह अन्न उपजाता है परंतु उसकी स्थिति यह रहती है कि वह कर्ज में डूबा रहता है। अपनी पूरी ताकत उस तरीके से झोंक देता है मानो जैसे-

खुद को आज थोड़ा और खिंचता हूँ,

इन फसलों को गहरे खून से सिंचता हूं।

भर देता हूं तुम्हारा पेट मरने से पहले,

अपनी अस्थियों से सारा खेत बीजता हूं।

                     किसी भी देश की कृषि वहां के भौगोलिक परिवेश पर निर्भर करती है। भारत स्वयं में अनेक भौगोलिक विविधता के साथ ही सांस्कृतिक विविधता को समेटे हुए हैं।भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है जहां उत्तर में हिमालय से निकलने वाली सतत वाहिनी बहूल नदियों के कारण कहीं हरियाली है तो कहीं बाढ़ के चपेट में आता रहता है तो वहीं पश्चिमी भारत के रेगिस्तानी भाग सूखे से पीड़ित है दक्षिण में समुद्री तटों से घिरा भारत कहीं बाढ़ से तो कहीं सूखे से ग्रस्त है। 

              प्राचीन काल से ही मानव ने प्रकृति को देवता माना है जिसमें इंद्रदेव सर्वोपरि है। भारत के ज्यादातर किसान आज भी पारंपरिक रूप से मौसम पर ही निर्भर है। विज्ञान की अंधाधुंध दौड़ ने प्रकृति को अनेक तरीकों से क्षति पहुँचाया है जिससे कभी-कभी असमय बारिश तो सूखा पड़ता रहता है जिसका परिणाम वह खेतिहर किसान भुगत रहे होते हैं जो प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाले विज्ञान से कोसों दूर है। अतः-

धान बाजरा गिर पड़े सह न सके आघात

 हलधर पर भारी पड़ी बेमौसम बरसात।

 सिर पर कर्जा बैंक का और बच्चों की फीस,

फसल खेत में सड़ गई अब क्या होगा ईश।

कुछ तो खेती रह गए,छुट्टा गाय-बिजार,

 शेष फसल पर पड़ गई इंद्रदेव की मार।

एक तरफ किसान प्रकृति से समायोजन बनाने में लगा हुआ है तो वहीं दूसरी ओर हमारी भौतिकवादी विचारधारा ने ग्लोबल वार्मिंग,जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण जैसी समस्याओं को न्योता दिया है।

              वैदिक काल में आर्यों के आगमन पर लोहे के प्रयोग में कृषि में क्रांति लाई मध्यकालीन भारत में नहरे,कुँए, तालाब विकसित किए गए जो सिंचाई के क्षेत्र में क्रांति लायी जबकि आधुनिक भारत में ब्रिटिश के आगमन ने अंग्रेजों के आगमन में शोषणकारी नीतियों जैसे काश्तकारी प्रथा को जन्म दिया। नील की खेती ने खेतों को बंजर बना दिया जिससे कई किसान बेघर हो गए। भारत के कई क्षेत्रों में अकाल पड़ गया है। लोग भूखे मरने लगे। उस भयावह नजारे को इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-

एक बार आकर देख,कैसा ह्रदय विदारक मंजर है,

पसलियों से लग गई है आँते,खेत अभी भी बंजर है।

       भारतीयों ने अंग्रेजों के दमनकारी नीतियों का विरोध किया। स्वतंत्रता पश्चात भारत में सर्वप्रथम पंचवर्षीय योजना के माध्यम से कृषि को ही सुधारने का काम किया और भारत ने सफलता हासिल भी की हरित क्रांति इस प्रकार से फैली जैसे कि-

 मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती.... मेरे देश की धरती। 

इस बात पर नागार्जुन देश में पड़े अकाल और उसके बाद की दशाओं का वर्णन करते है-

कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास

 कई दिनों तक कानी कुत्तिया सोई उनके पास

 कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त 

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त 

दाना आए घर के अंदर कई दिनों के बाद 

धुंआ उठा आंगन से ऊपर,कई दिनों के बाद

 चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद 

कौवे ने खुजलाई पांखे कई दिनों के बाद।

                  1970 के दशक में कृषि में काफी सुधार हुआ इसमें कोई दो राय नहीं क्योंकि यहां सिंचाई में सुधार,उर्वरक, कीटनाशकों एवं नवीन तकनीकों के प्रयोग से हरित क्रांति का प्रादुर्भाव हुआ। हरित क्रांति से फसलों की उत्पादकता तो बड़ी परंतु उन्हें निश्चित दाम पर खरीदने के लिए बाजार कहाँ है ?और किसी ने ठीक ही कहा है-

क्रिकेट खिलाड़ी करोड़ों में बिक रहे हैं 

काश....

किसानों के फसलों का भी कोई आईपीएल होता है।

               आखिरकार भारत सरकार ने 1980 से 90 के समय न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) को प्रोत्साहित किया जहां किसानों के फसल को सरकार उचित दाम पर खरीदने हेतु सुनिश्चित की हालांकि गरीब किसानों के लिए एमएसपी आज भी सहायक साबित नहीं हो पायी है क्योंकि फसलों को मंडी तक पहुंच के लिए न तो ढंग की सड़कें हैं और ना ही परिवहन का कोई माध्यम और ना ही सुव्यवस्थित तंत्र।  

                1991 से 98 के समय को उदारीकरण,औद्योगिकरण और विश्व व्यापार संगठन की स्थापना का दौर कहा जाता है जहां अनाज को अंतरराष्ट्रीय व्यापार में लाकर गोदाम में सड़ रहे अनाज को बचाव करने में कुछ हद तक राहत दिलाई है। फिर भी यहां भी संतोषजनक स्थिति नहीं बन सकी। यहां भी समस्या वही रही सड़क, बिजली, चिकित्सा आदि की समस्याए जिन्हें दूर करने हेतु 2004 में एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग गठित किया गया।

           वर्तमान में बढ़ती जनसंख्या के साथ बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है, साथ ही महंगाई भी। कर्ज में डूबा किसान दो जून की रोटी कमाने के लिए शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। फिर भी स्थिति यह है कि-

 महंगाई डायन खाए जात है।

 सईया हमार खूब कमात है।

          पहले यानी आज के 70 साल के मुकाबले कृषि भूमि पर आश्रित जनसंख्या का भार भी ढाई गुना से अधिक हो गया है। इसके अलावा जरूरत के मुताबिक न तो उन्नत बीज है और ना ही उन्नत तकनीक मिल पाती है जबकि किसानों को जरूरत है तो सिर्फ 

खेती मांगे दो ही चीज,

इफ़को खाद...उन्नत बीज।

परंतु यह बातें हरित क्रांति के दौरान ही लागू होती है वर्तमान में नहीं। खाद और बीज के अलावा किसानों को शिक्षित करना अति आवश्यक है क्योंकि-

तरक्की में शिक्षा सबसे बड़ी बाधा है। 

इसी वजह से किसान परेशान ज्यादा है।

            यदि बात करें कृषि शिक्षा की तो लैंगिक असमानता के कारण माध्यमिक स्कूल से ही लड़कों को कृषि विज्ञान तो लड़कियों को गृह विज्ञान पढ़ाया जाता है जबकि कृषि में महिलाओं की भी भागीदारी कम नहीं है। यदि बात करें कृषि विश्वविद्यालय की तो कृषि विश्वविद्यालय ज्यादातर नगरों में खोले जाते हैं जहां ग्रामीण बच्चों की पहुंच से दूर होता है। न्यूनतम बच्चे ही कृषि शिक्षा ग्रहण कर पाते हैं। परिणाम स्वरूप वैज्ञानिक तरीके से कृषि करने से वंचित हो जाते हैं और पारंपरिक तरीके के अलावा कोई चारा नहीं बचता।कृषि विद्यालय ग्रामीण क्षेत्रों में भी खोलने की आवश्यकता है ताकि आधुनिक युवा शक्ति को तकनीकी से जोड़कर समय धन और श्रम की बचत करके खाद्य प्रसंस्करण, व्यापार आदि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जा सके अर्थात-

देश की प्रगति है तब तक अधूरी

 किसान के विकास के बिना होगी न पूरी।

           देश के कृषक वर्ग की बात करें तो महिलाओं का कृषि में हिस्सेदारी को कमतर नहीं आंका जा सकता। चाहे वह रोपनी,कटनी, मिसनी या फसल ढुलाई हो। तो आइए जानते हैं हर ऋतु के कृषि में इनकी हिस्सेदारी को।

                 अप्रैल-मई महिने के चिलचिलाती धूप में गेहूं की कटाई में ज्यादातर महिलाएं ही होती है जरा सोचिए-

 यूं ही नहीं मिल जाता शहर में दुकान पर आटा 

किसी ने चिलचिलाती धूप में गेहूं था काटा।

लोग शहरों में रहकर न जाने कितनी समस्याएं गिनाने लगते हैं। किसान की मेहनत की रोटी डस्टबिन में डालने में थोड़ा भी हिचकिचाते नही।

                तो आइए थोड़ी उनकी मेहनत को समझने के लिए कल्पना भी कीजिए-

कभी जिया करो किसानों की जिंदगी

लोग महलों में रहकर खुद को परेशान कहते हैं।

         अब दूसरी ऋतु की बारी आती है  आषाढ़ यानी जून-जुलाई के महीने में खरीफ की फसले बोयी जाती है। धान की रोपाई का कार्य ज्यादातर महिलाएं करती हैं।

अब आइए जरा नजर दौड़ आते हैं कृषि विज्ञान की ओर-

रमाशंकर विद्रोही ने क्या खूब कहा है-

मैं किसान हूं

 आसमान में धान बो रहा हूं।

 कुछ लोग कह रहे हैं कि पगले आसमान में धान नहीं जमा करता है

मैं कहता हूं पगले!

 अगर जमीन पर भगवान जम सकता है 

तो आसमान में धान भी जम सकता है।

           कृषि की वैज्ञानिक पद्धति ने असंभव कार्य को भी संभव बनाया है अर्थात  वास्तव में यह सिद्ध हो गया कि अब कृषि केवल जमीन पर ही नहीं बल्कि एयरोपोनिक्स विधि द्वारा हवा में भी उगाया जाने लगा है तथा हाइड्रोपोनिक विधि द्वारा जल में भी।

भारत के विभिन्न क्षेत्र जैसे पश्चिमोत्तर भारत तथा उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में 53% क्षेत्र असिंचित है। किसान कर्ज लेकर बीज बोता है उर्वरक देता है परंतु सिंचाई के मामले में वर्षा पर निर्भर है। काली घटाओं से आशा लगाए बैठा होता है क्योंकि-

परिश्रम की मिशाल है, जिस पर कर्जो के निशान है

छत टपकती है उसके मकान की 

फिर भी बारिश हो जाए तमन्ना है किसान की।

  हालांकि भारत में नदी जोड़ो परियोजना जैसे केन बेतवा लिंक परियोजना सूखाग्रस्त क्षेत्रों को सिंचा है। 

                  भारतीय संविधान के अनुसार कृषि राज्यों का मामला है परंतु केंद्र सरकार का वर्चस्व रूपी कानून पूरे भारतीय कृषि पर लागू करना अनुचित प्रतीत होता है। खाद्य मंत्रालय ने हाल के वर्षों में एक डाटा प्रस्तुत किया। गेहूं और चावल के सबसे ज्यादा केंद्र उत्तर प्रदेश और बिहार है जबकि इन फसलों की खरीद नहीं के बराबर है। ऐसे न जाने कितने आंकडे झूठे प्रतीत होते हैं।अतः अदम गोंडवी कहते हैं-

तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है,

मगर यह आंकड़े झूठे हैं,यह वादा किताबी है।

 लगी है होड़-सी देखो अमीरी और गरीबी में 

यह गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है।

             भारत सरकार कृषि सुधार में अनेक प्रयास कर रही हैं जैसे कृषि रेल चला कर किसानों के व्यापार को सुगम बनाया है। पीएम फसल बीमा योजना द्वारा फसलों की बरबादी से पीड़ित किसानों को राहत दिलाई है। धान की पराली जलाने के समाधान हेतु इथेनॉल में परिवर्तित करने का निर्णय लिया है।उत्तर प्रदेश की वन डिडिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट कृषि को अप्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित करेगा। मृदा हेल्थ कार्ड के जरिए खेत की गुणवत्ता में सुधार किया जा रहा है परंतु इसको केंद्र प्रत्येक गांव में स्थापित करने की आवश्यकता है। पीएम किसान सम्मान निधि योजना जो किसानों की कर्ज माफी हेतु प्रतिवर्ष 6000 की आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है। इसी प्रकार की योजना तमिलनाडु सरकार रैय्यत बंधु योजना के नाम से किसानों के कर्ज माफी के लिए चला रही है परंतु सरकार को कर्ज माफी के बजाय असल समस्या पर ध्यान देने की आवश्यकता है। कृषि पर भारत के जीडीपी का केवल 0.3% खर्च किया जाता है जबकि इसको और बढ़ाने की आवश्यकता है। बीजों कि ऐसी उन्नत किस्में तैयार करने की आवश्यकता है जिससे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पानी की न्यूनतम आवश्यक हो। इजराइल की ड्रिप इरिगेशन को सिंचाई के रूप में अपनाने की आवश्यकता है। सरकार को चाहिए कि किसानों हेतु बनाई गई योजनाओं में क्षेत्रीय किसानों को भी शामिल किया जाए ताकि क्षेत्रीय समस्याओं को समझने में आसानी हो और जरूरत के अनुसार कानून बने जैसे बुंदेलखंड के मंगल ने नदी के पानी के द्वारा टरबाइन से बिजली विकसित की। नीम लेपित यूरिया जैसे विज्ञान पद्धति में अत्यंत कम मात्रा मे  यूरिया ही नहीं अपितु किसानों के खर्च को भी कम किया है। इसी प्रकार और भी कृषि पद्धति को विकसित करने की आवश्यकता है।







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