मानवता की अमूल्य धरोहर है कुंभ
तीर्थयात्रियों, कल्पवासियों एवं स्नानार्थियों का संगम है कुंभ
यह आस्था का सैलाब व
चुम्बकीय शक्ति है जो,
विश्व को अपनी ओर खिंचती है।
कुंभ को भारतीय संस्कृति का महापर्व और विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला माना जाता है। जहाँ कोई आमंत्रण अपेक्षित नहीं होता है। फिर भी करोड़ो यात्री देश-विदेश से इस पर्व को मनाने के लिए इस पावन संगम पर एकत्र होते है।
वैश्विक पटल पर शांति और सामंजस्य का प्रतीक मानते हुए वर्ष 2017 में यूनेस्को ने कुम्भ मेले को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में मान्यता प्रदान की है।
कुंभ की गहराई में उतरने के लिए हमें यह समझना होगा कि -
दिल लगाना हो तो बनारस जाइएगा।
और सुकून पाना हो तो महाकुंभ आइएगा ॥
तो आइए मिलकर लगाते हैं कुम्भ रूपी मेले में डुबकी जहाँ आस्था, आध्यात्म और कहानियों में विलीन होकर सुकून का अनुभव प्राप्त करते हैं।
तुम ताजमहल के आगे सेल्फी लेती
मैं प्रयागराज कुंभ में लेता स्नान प्रिये
भगवाधारी तिलक लगाकर,
तोड़ता हूँ तुम्हारे ब्रांडेड लिपिस्टिक का गुमान प्रिये।
उपर्युक्त पक्तियों से यह आभास होता है कि यह मेला भौतिकतावादी जीवन को आध्यात्मिकता से जोड़ता है जो ज्योतिष, खगोल विज्ञान, कर्मकाण्ड, परंपरा, सामाजिक- सांस्कृतिक पद्धतियों एवं व्यवहार से अवगत कराता है। यहाँ विविधता और गहन ऊर्जा को मेले में देखना काफी रोचक होता है। जो निश्चय ही हमारे गुमान को नष्ट कर देगा। तो आइए चलते है मेले की यात्रा में।
इस बार 13 जनवरी से 26 फरवरी 2025 को लगने वाला त्रिवेणी संगम पर महाकुंभ 45 दिनों तक चला । यह महाकुंभ सिर्फ सांस्कृतिक विरासत ही नहीं बल्कि 'डिजिटल शक्तियों' को भी आधुनिक आवश्यकता के अनुरुप स्वयं में समायोजित किए हुए है। जिसमे 'डिजिटल सहायक' ऐप जो 10 विभिन्न भाषाओं में कुंभ से संबंधित जानकारी प्रदान करता है तो वहीं नाव यात्रा बुकिंग हेतु ऑनलाइन ट्रैवल पोर्टल, श्रद्धालुओं को ठहरने हेतु टेंट व तंबु से बंधे अस्थाई आवासीय व्यवस्था, गुगल नेविगेशन, AI फीचर्स वाले कैमरे से निगरानी, प्रबंधक के रूप में प्रशासन, कई रिवर फ्रंट, फ्लाईओवर, पाण्टून पुल, स्पेशल ट्रेने, शटल बसे विभिन्न कॉरिडोर (हनुमान, भारद्वार अक्षयवट इत्यादि) जो लगभग 40-45 करोड़ आए श्रद्धालुओं के प्रबंधन में अत्यंत सराहनीय प्रयासरत रहे।
अब चलते हैं कुंभ के ऐतिहासिक पक्षों की ओर क्योंकि....
महाकुंभ के स्नान में लहराती नदियाँ
मानवीयता और आस्था के संगम की कहानी सुनाती है।
कुंभ का इतिहास पौराणिक कथाओं के अनुसार अनादि और बेहद प्राचीन है। कुंभ का शाब्दिक अर्थ 'कलश है। यहाँ कलश का संबंध 'अमृत कलश' से है।
देवासुर संग्राम के पश्चात दोनो पक्षों में समुद्र मंथन हुआ जिसके परिणामस्वरूप 14 रत्नों की प्राप्ति हुई। जिन्हे आपस में बराबर बाँट लिया गया। लेकिन अमृत कलश देवताओं को देने से युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर सबको अमृतपान कराने की बात कही और अमृत कलश का दायित्व इंद्रपुत्र जयंत को सौपा गया ।अमृत कलश को लेकर जयंत जब दानवों से भाग रहे थे तभी उसी झड़प में अमृत की कुछ बूंदे पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरी। जिसमें उज्जैन, हरिद्वार, इलाहाबाद, नासिक स्थान है। अमृत कलश को स्वर्ग में ले जाने में जयंत को 12 दिन का समय लगा । इसलिए माना जाता है कि देवताओं का एक दिन पृथ्वी के एक वर्ष के बराबर होता है। यहीं कारण है कि कालांतर में इन्हीं स्थानों पर ग्रह राशियों के विशेष संयोग पर 12 वर्षों में इन चार स्थलों पर कुंभ मेले का संयोजन होता है। अतः इस बार का महाकुंभ 144 वर्षों बाद का अद्भुत संयोग था।
ऐतिहासिक साक्ष्य काल निर्धारण के रूप में राजा हर्षवर्धन के शासनकाल (664 ई.पू) में इसके संकेत मिलते हैं। राजा हर्ष पंचवर्षीय महासम्मेलन में अपनी सारी संपत्ति गरीबों में दान कर देते थे। प्रसिद्ध यात्री हवेनसांग ने अपनी यात्रावृतांत में हर्ष व कुम्भ मेले की महानता का उल्लेख किया है।
अब आइए चलते हैं कुम्भ के महोत्सव में होने वाले कर्मकाण्डों की ओर जिसमें स्नान, आरती, कल्पवास, दीपदान, त्रिवेणी संगम, प्रयागवाल, पंचकोशी आदि है।
महाकुंभ का स्नान हमें यह सिखाता है
कि जल केवल जीवन का स्रोत नहीं,
बल्कि आध्यात्मिक जागरण का भी आधार है।
सभी कर्मकाण्डों में स्नान कर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। पवित्र कुंभ स्नान की मान्यता है कि पवित्र जल की नदी में डुबकी लगाकर व्यक्ति अपने समस्त पापों को धो डालता है। स्वयं को और अपने पूर्वजों को पुनर्जन्म से मुक्त कर डालता है और मोक्ष की प्राप्त करता है। अतः इस बार के कुंभ मेले में लगभग 50 करोड़ लोगो ने आस्था की डुबकी लगाई। इसीलिए तो कहते हैं...
कहीं न कहीं कर्मों का डर है,
नहीं तों गंगा पर इतना भीड़ क्यों है?
स्नान के साथ-साथ तीर्थयात्री नदी के तटो पर पूजा करते हैं और विभिन्न साधुगण के साथ-साथ सत्संग में मन की शुद्धि के लिए प्रतिभाग भी करते हैं क्योंकि -
पाप शरीर नहीं विचार करते हैं
और गंगा जी विचारों को नहीं, शरीर को धोती है।
अतः विचारों के शुद्धि के लिए कल्पवास किया जाता है। जो संगम के तट पर रहकर धार्मिक कार्यों में समय बिताया जाता है। अर्थात संगम के तटों पर वेदों के अध्ययन और ध्यान करने को कल्पवास कहते है। महर्षि दत्तात्रेय ने कल्पवास की पूर्ण विधि व्यवस्था का वर्णन किया है।
ऋषियों की तपोस्थली तीर्थराज प्रयागराज के जंगलों में ऋषि मुनि तप और ध्यान करते थे। ऋषियों ने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा जिन्हें अल्पकाल के लिए शिक्षा और दीक्षा दी जाती थी। ऐसा माना जाता है कि जो कल्पवास करता है यो अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है। लेकिन मोक्ष के अभिलाषी को मोक्ष अवश्य मिलता है।
भारत में प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों नदी, पर्वत, वृक्ष आदि को देवस्वरूप मानकर उनकी अराधना करने का प्रचलन प्राचीन काल से चला आ रहा है। इसीलिए तो कहती है गंगा माँ-
मानों तो गंगा माँ हूँ,
न मानों तो बहता पानी ।
पुजा अर्चना में जीवनदायिनी अविरल नदियों को प्रमुखता दी गई है। मनुष्य कृतज्ञ होकर अपनी भावों की अभिव्यक्ति, नदियों की तटों पर आरती के माध्यम से करता आ रहा है। इन आरतियों में विशाल जनसमूह श्रद्धाभाव से सम्मलित होते है। आरती के अलौकिक व दैवीय भाव से आत्मा और मन भाव विभोर हो उठता है।
अब जरा नजर दौड़ाते हैं तटो पर.... तैरते दीपो की ओर जो एकता, आस्था, सांस्कृतिक और धार्मिकता में महापर्व कुम्भ में जहाँ असंख्य दीपों की झिलमिलाहट से त्रिवेणी संगम जगमगा उठती है। इस मेले में गंगा माँ को दीप समर्पित करने का विधान है। जिसमें श्रद्धालु पत्ते से बने दोने व आटे से दीपक बनाकर उसे घी के तेल की बाती में जलाकर नदी के जल में समर्पित करते हैं। इसके अलावा नदी तटो पर लाखों दीपों की दीपमाला सजाई जाती है। बहते जल में दीपों की झिलमिलाहट आसमान में अनगिनत तारों का आभास कराती है।
अब आइए चलते है अखाड़ों की तरफ.... अब आप सोच रहे होंगे लड़ाई वाले अखाड़े को....
अरे नहीं भई... ये तो-
अखाड़े में जलती है साधुओं की ज्वाला
महाकुंभ में हर दुखी दिल पाता है एक सुकून का प्याला।
'अखाड़ा 'शब्द 'अखण्ड' शब्द से निकला है जिसका अर्थ है न विभाजित होने वाला। आदिगुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा हेतु साधु संघों को मिलाने के लिए विभिन्न अखाड़ों की स्थापना की। जैसे- शैव अखाड़ा वैष्णव अखाड़ा, उदासीन अखाड़ा इत्यादि । अखाड़े से संबंधित साधु शास्त्र और शस्त्र दोनों में पारंगत होते हैं। समाज में आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा करना ही अखाड़ों का मुख्य उद्देश्य है।
अलग-अलग संगठनों में बँटे होने के बावजूद भी अखाड़े एकता के प्रतीक है। अखाड़ा मठों का एक विशिष्ट प्रकार नागा सन्यासियों का एक विशिष्ट संगठन है। विभिन्न स्थानों पर अखाड़ों में बनने वाले नागाओं का अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे- प्रयागराज के राजेश्वरी, हरिद्वार के बर्फानी, उज्जैन के खूनी तथा नासिक के खिचड़ी।
शाही ठाठ-बाँट के जुलुस में इन अखाड़ों के श्रद्धाभाव को अच्छे से देखा जा सकता है। जो शाही स्नान (राजयोगी स्नान) के मेले के दौरान इसकी भव्यता विशेष रूप से दिखाई देती है।
अब आइए मिलते हैं प्रयागवाल के लोगो से जो ठीक उसी तरह है जैसे....
तू संगम तट सी चौरस प्रिये
मैं दारागंज सा सकरा हूँ।
तू सिविल लाइंस सी शांत है
मैं भीड़-भाड़ का कटरा हूँ।
प्रयागराज के अति प्राचीन निवासी होने के कारण इनका नाम प्रयागवाल पड़ा। कुंभ व माघ मेले में आने वाले तीर्थ यात्री प्रयागवालों द्वारा बसाए जाते रहे हैं और वे ही इनका धार्मिक कार्य करते रहे हैं। अतः पर्यटन व धार्मिक अनुष्ठान इनके आजीविका के साधन है। इनका वर्णन मत्स्य पुराण तथा प्रयागमहात्म में भी मिलता है।
अब आइए जरा ध्यान देते हैं मेले के दौरान होने वाली घटनाओं पर-
महाकुंभ के 144 वर्षों बाद का अद्भुत संयोग व लोगो की प्रबल आस्था ने लोगों को मेले के प्रबंधन क्षमता से अधिक खींच लाई। जो भयावह भीड़ के कारण कही रास्ते जाम तो कहीं स्टेशनों पर भगदड़ तो कहीं घाटों पर ।
भीड़ की आशंका को देखते हुए सरकार ने सचेत भी किया कि-
सभी श्रद्धालु ध्यान से सुन ले...
यहाँ लेटे रहने से कोई फायदा नही..
जो सोवत है वो खोवत है...
--उठिए उठिए स्नान कीजिए .....
इसके बावजूद भी अंततः भगदड़ से सरकारी आकड़ों के मुताबित 30-35 जाने गई। संभवतः-
जो स्नान करने गए थे,
वो अब श्मशान पहुँच गए।
इन घटनाओं से सबक लेने की आवश्यकता है अन्यथा बार-बार दोहराई जाती रही है और आगे भी होगा। व्यवस्थाओं का विकास इस भीड़ को ध्यान में रखकर किया जाए। धार्मिक उत्सवों का प्रचार-प्रसार सतर्कता से किया जाना चाहिए और व्यवस्थाओं के अनुरुप ही लोगो को आमंत्रित किया जाए।
अंततः कुंभ का आयोजन पूरे देश और विदेश के लिए आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण करता है। मेले की विविधता और ऊर्जा को देखना काफी रोचक है। सनातन धर्म को समझने के लिए कुंभ मेले से श्रेष्ठ अवसर नहीं है। यह मेला पृथ्वी की गहराई तक छू लेने वाला अनुभव है। जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।
फिर भी इन भावों को इस प्रकार महसूस किया जा सकता है कि-
तू गंगा की धारा है,मैं संगम का किनारा हूँ।तू प्रयाग की नगरी है,मैं कुंभ सा नजारा हूँ।।
इस तरह आस्था, विश्वास, सौहार्द, मिलनसारिता और सांस्कृतिक एकता का महापर्व कुंभ समाप्त होता है।
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