सहजन
(Drumstick tree ; वानस्पतिक नाम : "मोरिंगा ओलिफेरा" (Moringa oleifera) ) एक बहु उपयोगी पेड़ है। इसे हिन्दी में सहजना, सुजना, सेंजन और मुनगा आदि नामों से भी जाना जाता है। इस पेड़ के विभिन्न भाग अनेकानेक पोषक तत्वों से भरपूर पाये गये हैं इसलिये इसके विभिन्न भागों का विविध प्रकार से उपयोग किया जाता है।
इसकी पत्तियों और फली की सब्जी बनती है। इसका उपयोग जल को स्वच्छ करने के लिये तथा हाथ की सफाई के लिये भी उपयोग किया जा सकता है। इसका कभी-कभी जड़ी-बूटियों में भी उपयोग होता है। बिहार झारखंड में इसे सोजाना नाम से जाना जाता है।
इसके फूलों को पकाकर खाया जायता है और इनका स्वाद खुम्भी (मशरूम) जैसा बताया जाता है। अनेक देशों में इसकी छाल, रस, पत्तियों, बीजों, तेल, और फूलों से पारम्परिक दवाएँ बनायी जाती है। जमैका में इसके रस से नीली डाई (रंजक) के रूप में उपयोग किया जाता है।
ब्राह्मी (वानस्पतिक नाम : Bacopa monnieri) का एक औषधीय पौधा है जो भूमि पर फैलकर बड़ा होता है। इसके तने और पत्तियाँ मुलामय, गूदेदार और फूल सफेद होते है। यह पौधा नम स्थानों में पाया जाता है, तथा मुख्यत: भारत ही इसकी उपज भूमि है।
यह पूर्ण रूपेण औषधीय पौधा है। यह औषधि नाडि़यों के लिये पौष्टिक होती है। कब्ज को दूर करती है। इसके पत्ते के रस को पेट्रोल के साथ मिलाकर लगाने से गठिया दूर करती है। ब्राह्मी में रक्त शुद्ध करने के गुण भी पाये जाते है। यह हृदय के लिये भी पौष्टिक होता है।- लोहड़ी का पौधा शरीर में कैंसर के लिए जिम्मेदार तत्वों को खत्म करता है इस पौधे में कैल्शियम का भंडार होता है, जो शरीर की हड्डियों को भी मजबूत करता है.
शतावर
(वानस्पतिक नाम: Asparagus racemosus / ऐस्पेरेगस रेसीमोसस) लिलिएसी कुल का एक औषधीय गुणों वाला पादप है। इसे 'शतावर', 'शतावरी', 'सतावरी', 'सतमूल' और 'सतमूली' के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत, श्री लंका तथा पूरे हिमालयी क्षेत्र में उगता है आयुर्वेद में इसे ‘औषधियों की रानी’ माना जाता है। इसकी गांठ या कंद का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें जो महत्वपूर्ण रासायनिक घटक पाए जाते हैं वे हैं ऐस्मेरेगेमीन ए नामक पॉलिसाइक्लिक एल्कालॉइड, स्टेराइडल सैपोनिन, शैटेवैरोसाइड ए, शैटेवैरोसाइड बी, फिलियास्पैरोसाइड सी और आइसोफ्लेवोंस। सतावर का इस्तेमाल दर्द कम करने, महिलाओं में स्तन्य (दूध) की मात्रा बढ़ाने, मूत्र विसर्जनं के समय होने वाली जलन को कम करने और कामोत्तेजक के रूप में किया जाता है। इसकी जड़ तंत्रिका प्रणाली और पाचन तंत्र की बीमारियों के इलाज, ट्यूमर, गले के संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और कमजोरी में फायदेमंद होती है। यह पौधा कम भूख लगने व अनिद्रा की बीमारी में भी फायदेमंद है। अतिसक्रिय बच्चों और ऐसे लोगों को जिनका वजन कम है, उन्हें भी ऐस्पैरेगस से फायदा होता है। इसे महिलाओं के लिए एक बढ़िया टॉनिक माना जाता है। इसका इस्तेमाल कामोत्तेजना की कमी और पुरुषों व महिलाओं में बांझपन को दूर करने और रजोनिवृत्ति के लक्षणों के इलाज में भी होता है
औषधीय उपयोगइसका उपयोग
स्त्री रोगों जैसे प्रसव केउपरान्त दूध का न आना, बांझपन, गर्भपात आदि में किया जाता है। यह जोडों के दर्द एवं मिर्गी में भी लाभप्रद होता है। इसका उपयोग प्रतिरोधात्मक शक्ति बढाने के लिए भी किया जाता है। शतावर जंगल में स्वतः उत्पन्न होती है। चूंकि इसका औषधीय महत्व भी है अतः अब इसका व्यावसायिक उत्पादन भी है। इसकी लतादार झाडी की पत्तियां पतली और सुई के समान होती है। इसका फल मटर के दाने की तरह गोल तथा पकने पर लाल होता है।
अश्वगंधा या असगंध (Withania somnifera)
एक पौधा (क्षुप) है। यह विदानिया कुल का पौधा है; विदानिया की विश्व में 10 तथा भारत में 2 प्रजातियाँ पायी जाती हैं। इसके साथ-साथ इसे नकदी फसल के रूप में भी उगाया जाता है। इसकी ताजा पत्तियों तथा जड़ों में घोड़े की मूत्र की गंध आने के कारण ही इसका नाम अश्वगंधा पड़ा। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में प्रयोग किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पौधा है। आयुर्वेद मे अशवगंधा को मेध्य रसायन भी कहते है जिससे हमारी दिमाग की यादास्त तथा एकाग्रता बढाने के लिए उपयोग किया जाता है
अश्वगंधा को जीणोद्धारक औषधि के रूप में जाना जाता है। इसमें एण्टी टयूमर एंव एण्टी वायोटिक गुण भी पाया जाता है।
भृंगराज
(अंग्रेजी नाम : False Daisy ; वैज्ञानिक नाम : Eclipta alba) आस्टेरेसी (Asteraceae) कुल का पौधा है। यह प्राय: नम स्थानों में उगता है। वैसे तो यह लगभग पूरे संसार में उगता है किन्तु भारत, चीन, थाइलैंड एवं ब्राजील में बहुतायत में पाया जाता है। आयुर्वेद में इसका तेल बालों के लिये बहुत उपयोगी माना जाता है।
आयुर्वेदिक विशेषज्ञों का मत है कि भृंगराज बालों और लीवर से जुड़ी समस्याओं के लिए लाभदायक है, क्योंकि इसमें केश्य गुण पाया जाता है।
घृत कुमारी
अलो वेरा/एलोवेरा, जिसे क्वारगंदल, या ग्वारपाठा के नाम से भी जाना जाता है, एक औषधीय पौधे के रूप में विख्यात है। इसकी उत्पत्ति संभवतः उत्तरी अफ्रीका में हुई है।
घृत कुमारी के अर्क का प्रयोग बड़े स्तर पर सौंदर्य प्रसाधन और वैकल्पिक औषधि उद्योग जैसे चिरयौवनकारी (त्वचा को युवा रखने वाली क्रीम), आरोग्यी या सुखदायक के रूप में प्रयोग किया जाता है, घृत कुमारी मधुमेह के इलाज में काफी उपयोगी हो सकता है साथ ही यह मानव रक्त में लिपिड का स्तर काफी घटा देता है। माना जाता है ये सकारात्मक प्रभाव इसमे उपस्थिति मन्नास, एंथ्राक्युईनोनेज़ और लिक्टिन जैसे यौगिकों के कारण होता है! इसके अलावा मानव कल्याण संस्थान के निदेशक और सेवानिवृत्त चिकित्सा अधिकारी डॉ॰गंगासिंह चौहान ने काजरी के रिटायर्ड वैज्ञानिक डॉ॰ए पी जैन के सहयोग से एलोविरा और मशरूम के कैप्सूल तैयार किए हैं, जो एड्स रोगियों के लिए बहुत लाभदायक हैं। यह रक्त शुद्धि भी करता है।
जलने और घाव पर लगाने के अलावा घृत कुमारी के सेवन से मधुमेह रोगियों की रक्त शर्करा के स्तर में सुधार होता है साथ ही यह उच्च लिपिडेमिक रोगियों के रक्त में लिपिड का स्तर घटाता है।
चौलाई (अंग्रेज़ी : आमारान्थूस्)
पौधों की एक जाति है जो पूरे विश्व में पायी जाती है। अब तक इसकी लगभग ६० प्रजातियां पाई व पहचानी गई हैं, जिनके पुष्प पर्पल एवं लाल से सुनहरे होते हैं।
औषधीय उपयोगिता
चौलाई का सेवन भाजी व साग (लाल साग) के रूप में किया जाता है जो विटामिन सी से भरपूर होता है। इसमें अनेकों औषधीय गुण होते हैं, इसलिए आयुर्वेद में चौलाई को अनेक रोगों में उपयोगी बताया गया है। सबसे बड़ा गुण सभी प्रकार के विषों का निवारण करना है, इसलिए इसे विषदन भी कहा जाता है। इसमें सोना धातु पाया जाता है जो किसी और साग-सब्जियों में नहीं पाया जाता। औषधि के रूप में चौलाई के पंचाग यानि पांचों अंग- जड, डंठल, पत्ते, फल, फूल काम में लाए जाते हैं।[1] इसकी डंडियों, पत्तियों में प्रोटीन, खनिज, विटामिन ए, सी प्रचुर मात्रा में मिलते है। लाल साग यानि चौलाई का साग एनीमिया में बहुत लाभदायक होता है। चौलाई पेट के रोगों के लिए भी गुणकारी होती है क्योंकि इसमें रेशे, क्षार द्रव्य होते हैं जो आंतों में चिपके हुए मल को निकालकर उसे बाहर धकेलने में मदद करते हैं जिससे पेट साफ होता है, कब्ज दूर होता है, पाचन संस्थान को शक्ति मिलती है। छोटे बच्चों के कब्ज़ में चौलाई का औषधि रूप में दो-तीन चम्मच रस लाभदायक होता है। प्रसव के बाद दूध पिलाने वाली माताओं के लिए भी यह उपयोगी होता है। यदि दूध की कमी हो तो भी चौलाई के साग का सेवन लाभदायक होता है। इसकी जड़ को पीसकर चावल के माड़ (पसावन) में डालकर, शहद मिलाकर पीने से श्वेत प्रदर रोग ठीक होता है। जिन स्त्रियों को बार-बार गर्भपात होता है, उनके लिए चौलाई साग का सेवन लाभकारी है।
अनेक प्रकार के विष जैसे चूहे, बिच्छू, संखिया, आदि का विष चढ गया हो तो चौलाई का रस या जड़ के क्वाथ में काली मिर्च डालकर पीने से विष दूर हो जाता है। चौलाई का नित्य सेवन करने से अनेक विकार दूर होते हैं।
सदाफूली
सदाबहार बारहों महीने खिलने वाले फूलों का एक पौधा है। इसकी आठ जातियां हैं। इनमें से सात भारत में पायी जाने वाली प्रजाति का वैज्ञानिक नाम केथारेन्थस रोजस है। इसे पश्चिमी भारत के लोग सदाफूली के नाम से बुलाते है।
औषधीय गुण
'सदाबहार' झाड़ी में यह क्षार अच्छी मात्रा में होता है। इसलिए अब यूरोप भारत चीन और अमेरिका के अनेक देशों में इस पौधे की खेती होने लगी है। अनेक देशों में इसे खाँसी, गले की ख़राश और फेफड़ों के संक्रमण की चिकित्सा में इस्तेमाल किया जाता है। सबसे रोचक बात यह है कि इसे मधुमेह के उपचार में भी उपयोगी पाया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सदाबहार में दर्जनों क्षार ऐसे हैं जो रक्त में शकर की मात्रा को नियंत्रित रखते है।[3] जब शोध हुआ तो 'सदाबहार' के अनेक गुणों का पता चला - सदाबहार पौधा बारूद - जैसे विस्फोटक पदार्थों को पचाकर उन्हें निर्मल कर देता है। यह कोरी वैज्ञानिक जिज्ञासा भर शांत नहीं करता, वरन व्यवहार में विस्फोटक-भंडारों वाली लाखों एकड़ ज़मीन को सुरक्षित एवं उपयोगी बना रहा है। भारत में ही 'केंद्रीय औषधीय एवं सुगंध पौधा संस्थान' द्वारा की गई खोजों से पता चला है कि 'सदाबहार' की पत्तियों में 'विनिकरस्टीन' नामक क्षारीय पदार्थ भी होता है जो कैंसर, विशेषकर रक्त कैंसर (ल्यूकीमिया) में बहुत उपयोगी होता है। आज यह विषाक्त पौधा संजीवनी बूटी का काम कर रहा है।
पुनर्नवा या शोथहीन या गदहपूरना (वानस्पतिक नाम:Boerhaavia diffusa)
एक आयुर्वेदिक औषधीय पौधा है। श्वेत पुनर्नवा का पौधा बहुवर्षायु और प्रसरणशील होता है। क्षुप 2 से 3 मीटर लंबे होते हैं। ये प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु में नए निकलते हैं व ग्रीष्म में सूख जाते हैं।
आयुर्वेद की नजर से
विशेषता और उपयोग -: पुनर्नवा उष्णवीर्य, तिक्त, रुखा और कफ नाशक होता है। इससे सूजन, पांडुरोग, हर्द्रोग, खांसी, उर:क्षत(सीने का घाव) और पीड़ा का विनाशक होता है।
आर्टेमिसिया एब्सिथियम (वर्मवुड)
एक औषधीय पौधा है जिसका उपयोग आयुर्वेद और हर्बल दवाओं में किया जाता है।
गाजर घास या 'चटक चांदनी' (Parthenium hysterophorus)
एक घास है जो बड़े आक्रामक तरीके से फैलती है। यह 00000एकवर्षीय शाकीय पौधा है जो हर तरह के वातावरण में तेजी से उगकर फसलों के साथ-साथ मनुष्य और पशुओं के लिए भी गंभीर समस्या बन जाता है। इस विनाशकारी खरपतवार को समय रहते नियंत्रण में किया जाना चाहिए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस घास को चिड़िया बाड़ी के नाम से भी पुकारते है।
गाजर घास का उपयोग अनेक प्रकार के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और खरपतवार नाशक दवाइयों के र्निमाण में किया सकता है। इसकी लुग्दी से विभिन्न प्रकार के कागज तैयार किये जा सकते हैं। बायोगैस उत्पादन में भी इसको गोबर के साथ मिलाया जा सकता है।
अरंडी
(अंग्रेज़ी:कैस्टर) तेल का पेड़ एक पुष्पीय पौधे की बारहमासी झाड़ी होती है, जो एक छोटे आकार से लगभग १२ मी के आकार तक तेजी से पहुँच सकती है, पर यह कमजोर होती है।बीज में रिसिन नामक एक कुछ विषैला पदार्थ भी होता है, जो लगभग पेड़ के सभी भागों में उपस्थित रहता है।
अरण्डी का तेल साफ, हल्के रंग का होता है, जो अच्छे से सूख कर कठोर हो जाता है और गंध से मुक्त होता है। यह शुद्ध ऍल्कालोइड़स के लिये एक उत्कृष्ट सॉल्वैंट के रूप में नेत्र शल्य चिकित्सा में प्रयुक्त होता है। यह मुख्य रूप से कृत्रिम चमड़े के विनिर्माण में उपयोग होता है। यह कुछ कृत्रिम रगड़नेवाला रबर में एक आवश्यक घटक है। एक सबसे बड़ा प्रयोग पारदर्शी साबुन के निर्माण में होता है। इसके अलावा इसके औषधीय प्रयोग भी होते हैं। इस तेल को दवा मे एक मूल्यवान जुलाब माना जाता है।[1] यह अस्थायी कब्ज में, उपयोग मे आता है और यह बच्चों और वृद्ध के लिये विशेष उपयोगी होता है। यह पेट के दर्द और तीव्र दस्त मे धीमी पाचन के कारण प्रयोग किया जाता है। अरंड़ी तेल बाह्य रूप मे, दाद, खुजली, आदि विभिन्न रोगो के लिए विशेष उपयोगी होता है। इसके ताजा पत्तो को कैनरी द्वीप में नर्सिंग माताओं द्वारा एक बाहरी अनुप्रयोग के रूप में, दूध का प्रवाह बढ़ाने के लिए उपयोग किया जाता है।. यह आंखों में विदेशी निकायों को हटाने के बाद की जलन को दूर करने के लिए डाला जाता है।[1] लीमू मरहम के साथ संयुक्त रूप में, यह आम कुष्ठ में एक सामयिक आवेदन के रूप मे प्रयोग किया जाता है।
गिलोय
(अंग्रेज़ी:टीनोस्पोरा कार्डीफोलिया) की एक बहुवर्षिय लता होती है। इसके पत्ते पान के पत्ते की तरह होते हैं। आयुर्वेद में इसको कई नामों से जाना जाता है यथा अमृता, गुडुची, छिन्नरुहा, चक्रांगी, आदि
फूल ग्रीष्म ऋतु में छोटे-छोटे पीले रंग के गुच्छों में आते हैं। फल भी गुच्छों में ही लगते हैं तथा छोटे मटर के आकार के होते हैं। पकने पर ये रक्त के समान लाल हो जाते हैं। बीज सफेद, चिकने, कुछ टेढ़े, मिर्च के दानों के समान होते हैं
पहचान के लिए एक साधारण-सा परीक्षण यह है कि इसके क्वाथ में जब आयोडीन का घोल डाला जाता है तो गहरा नीला रंग हो जाता है। यह इसमें स्टार्च की उपस्थिति का परिचायक है।
औषधीय गुणों के आधार पर नीम के वृक्ष पर चढ़ी हुई गिलोय को सर्वोत्तम माना जाता है क्योंकि गिलोय की बेल जिस वृक्ष पर भी चढ़ती है वह उस वृक्ष के सारे गुण अपने अंदर समाहित कर लेती है तो नीम के वृक्ष से उतारी गई गिलोय की बेल में नीम के गुण भी शामिल हो जाते हैं अतः नीमगिलोय सर्वोत्तम होती है
मकोय (BLACK NIGHT OR NIGHT SHADE)
को काकमाची और भटकोइंया भी कहते हैं। यह एक छोटा-सा पौधा है जो भारतवर्ष के छाया-युक्त स्थानों में हमेशा पाया जाता हैं। मकोय में पूरे वर्ष फूल और फल देखे जा सकते हैं।
फल छोटे, चिकना गोलाकार अपरिक्व अवस्था में हरे रंग के और पकने पर नीले या बैंगनी रंग के, कभी-कभी पीले या लाल होते हैं। बीज छोटे, चिकने, पीले रंग के, बैंगन के बीजों की तरह होते है परन्तु बैंगन के बीजों से बहुत छोटे होते हैं। पकने पर फल मीठे लगते हैं।
मकोय का दूसरा नाम ककमाची भी है। इस के पतियों मैं त्रिदोष नाशक गुण होते हैं। यह कुष्ट रोग और स्वरयंत्र के लिए लाभकारी होती है। यह ऊषण वीर्य और सर होती है।
भटकटैया या कंटकारी
(वैज्ञानिक नाम : Solanum xanthocarpum) का फैलने वाला, बहुवर्षायु क्षुप है। इसके पत्ते लम्बे काँटो से युक्त हरे होते है ; पुष्प नीले रंग के होते है ; फल क्च्चे हरित वर्ण के और पकने पर पीले रंग के हो जाते है। बीज छोटे और चिकने होते है। यह पश्चिमोत्तर भारत मे शुष्कप्राय स्थानों पर होती है। यह एक औषधीय पादप है। भटकटैया के कुछ भाग (जैसे, फल) विषैले होते हैं।
चिकित्सीय गुण
आयुर्वेदिक मतानुसार भटकटैया स्वाद में कटु, तिक्त, गुण में हलकी, तीक्ष्ण, प्रकृति में गर्म, विपाक में कटु, कफ निस्सारक, पाचक, अग्निवर्द्धक, वातशामक होती है। यह दमा, खांसी, ज्वर, कृमि, दांत दर्द, सिर दर्द, मूत्राशय की पथरी नपुंसकता, नकसीर, मिर्गी, उच्च रक्तचाप में गुणकारी है।
यूनानी चिकित्सा पद्धति के अनुसार भटकटैया दूसरे दर्जे की गर्म और खुश्क होती है। यह पित्त विकार, कफ, खांसी, दमा, पेट दर्द, मंदाग्नि, पेट के अफारे में गुणकारी है।
भटकटैया की रासायनिक संरचना का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि इसके पंचांग में सोले कार्पिडिन एल्केलाइड पोटेशियम नाइट्रेट और पोटेशियम क्लोराइड अल्प मात्रा में पाए जाते हैं। इसका काढ़ा सुजाक में लाभप्रद होता है
भटकटैया का काढ़ा
बनाने की विधि
भटकटैया का पूरा पौधा फूल, फल, पत्ती, तना, जड़-पंचाङ्ग सहित उखाड़कर लायें। उसे ठीक से धुलने के बाद। जड़ सहित सम्पूर्ण पौधे को स्टील के बड़े से बर्तन में धीमी आँच पर पकने के लिए रख दें। यह मन्द आँच पर दो-तीन घंटे पकता रहेगा। उसके बाद जब पानी तिहाई शेष बचे तब उतारकर छान लें। राज्य फिर काँच की बोतलों में भरकर रख दें।
इसका तुरंत उपयोग कर सकते हैं। इसे संग्रहीत भी कर सकते हैं आवश्यकता पड़ने पर इसे पुनः एक बार उबालकर ठंडा करके रोगी को दिया जा सकता है। इससे पुरानी से पुरानी खाँसी तो ठीक होगी ही। इसके साथ ही सारा कफ भी धीरे-धीरे बाहर आ जायेगा।
सेवन विधि और मात्रा
तीन से चार बड़े चम्मच समान मात्रा में जल के साथ इसका सेवन करना चाहिए।
यदि बहुत पहले बनाकर बोतल में बंद रखा है तो उपयोग से पहले एकबार उबालकर ठंडा अवश्य करना चाहिए ताकि यदि कुछ विकार आया होगा तो दूर हो जाय। यह काढ़ा रोगी को 3-6दिनों तक दिया जा सकता है। दिन में दो बार। उसको एक दो खुराक से ही आराम होने लगेगा।
Datura stramonium
धतूरा एक पादप है। यह लगभग १ मीटर तक ऊँचा होता है। यह वृक्ष काला-सफेद दो रंग का होता है। और काले का फूल नीली चित्तियों वाला होता है। हिन्दू लोग धतूरे ले फल, फूल और पत्ते शंकरजी पर चढ़ाते हैं। आचार्य चरक ने इसे 'कनक' और सुश्रुत ने 'उन्मत्त' नाम से संबोधित किया है। आयुर्वेद के ग्रथों में इसे विष वर्ग में रखा गया है। अल्प मात्रा में इसके विभिन्न भागों के उपयोग से अनेक रोग ठीक हो जाते हैं।
आयुर्वेद में उपयोग
धतूरे के पत्तों का धूँआ दमा शांत करता है। तथा धतूरे के पत्तों का अर्क कान में डालने से आँख का दुखना बंद हो जाता है। धतूरे की जड सूंघे तो मृगीरोग शाँत हो जाता है। धतूरे की फल को बीच से तरास कर उसमें लौंग रखे फिर कपड मिट्टी कर भूमर में भूने जब भून जावे तब पीस कर उसका उडद बराबर गोलीयाँ बनाये सबेरे साँझ एक -एक गोली खाने से ताप और तिजारी रोग दूर हो जाय और वीर्य का बंधेज होवे। धतूरे के कोमल पत्तो पर तेल चुपडे और आग पर सेंक कर बालक के पेट पर बाँधे इससे बाल का सर्दी दूर हो जाती है। और फोडा पर बाँधने से फोडा अच्छा हो जाता है। बवासीर और भगन्दर पर धतूरे के पत्ते सेंक कर बाँधे स्त्री के प्रसूती रोग अथवा गठिया रोग होने से धतूरे के बीजों तेल मला जाता है।
मदार
(वानस्पतिक नाम:Calotropis gigantea) एक औषधीय पादप है। इसको मंदार', आक, 'अर्क' और अकौआ भी कहते हैं। इसका वृक्ष छोटा और छत्तादार होता है। पत्ते बरगद के पत्तों समान मोटे होते हैं। हरे सफेदी लिये पत्ते पकने पर पीले रंग के हो जाते हैं। इसका फूल सफेद छोटा छत्तादार होता है। फूल पर रंगीन चित्तियाँ होती हैं। फल आम के तुल्य होते हैं जिनमें रूई होती है। आक की शाखाओं में दूध निकलता है। वह दूध विष का काम देता है। आक गर्मी के दिनों में रेतिली भूमि पर होता है। चौमासे में पानी बरसने पर सूख जाता है।
चिकित्सा में उपयोग
- आक के पीले पत्ते पर घी चुपड कर सेंक कर अर्क निचोड़ कर कान में डालने से आधा सिर दर्द जाता रहता है। बहरापन दूर होता है। दाँतों और कान की पीड़ा शाँत हो जाती है।
- आक के कोमल पत्ते मीठे तेल में जला कर अण्डकोश की सूजन पर बाँधने से सूजन दूर हो जाती है। तथा कडु़वे तेल में पत्तों को जला कर गरमी के घाव पर लगाने से घाव अच्छा हो जाता है। एवं पत्तों पर कत्था चूना लगा कर पान समान खाने से दमा रोग दूर हो जाता है। तथा हरा पत्ता पीस कर लेप करने से सूजन पचक जाती है।
- कोमल पत्तों के धूँआ से बवासीर शाँत होती है। कोमल पत्ते खाय तो ताप तिजारी रोग दूर हो जाता है।
- आक के पत्तों को गरम करके बाँधने से चोट अच्छी हो जाती है। सूजन दूर हो जाती है। आक के फूल को जीरा, काली मिर्च के साथ बालक को देने से बालक की खाँसी दूर हो जाती है।
- दूध पीते बालक को माता अपनी दूध में देवे तथा मदार के फल की रूई रूधिर बहने के स्थान पर रखने से रूधिर बहना बन्द हो जाता है। आक का दूध लेकर उसमें काली मिर्च पीस कर भिगोवे फिर उसको प्रतिदिन प्रातः समय मासे भर खाय 9 दिन में कुत्ते का विष शाँत हो जाता है। परंतु कुत्ता काटने के दिन से ही खावे। आक का दूध पाँव के अँगूठे पर लगाने से दुखती हुई आँख अच्छी हो जाती है। बवासीर के मस्सों पर लगाने से मस्से जाते रहते हैं। बर्रे काटे में लगाने से दर्द नहीं होता। चोट पर लगाने से चोट शाँत हो जाती है। जहाँ के बाल उड गये हों वहाँ पर आक का दूध लगाने से बाल उग आते हैं। तलुओं पर लगाने से महिने भर में मृगी रोग दूर हो जाता है। आक के दूध का फाहा लगाने से मुँह का लक्वा सीधा हो जाता है। आक की छाल को पीस कर घी में भूने फिर चोट पर बाँधे तो चोट की सूजन दूर हो जाती है। तथा आक की जड को दूध में औटा कर घी निकाले वह घी खाने से नहरूआँ रोग जाता रहता है
- जिनको दूध नहीं पचता वे इसे सेवन कर दूध खूब हजम कर सकते हैं।
- आक का दातून करने से दाँतों के रोग दूर होते हैं।
नकारात्मक प्रभाव
आक का दूध यदि आंख में चला जाए तो आंख की रोशनी भी जा सकती है। अतः प्रयोग करते समय अपनी आंखों को बचा के रखे।
मरुआ
बनतुलसी या बबरी की जाति का एक पौधा।
यह पौधा बागों में लगाया जाता है। इसकी पत्तिय बबरी की पत्तियाँ से कुछ बड़ी, नुकीली, मोटी, नरम और चिकनी होती हैं जिनमें से उग्र गंध आती है। इसके दर देवताओं पर चढ़ाए जाते हैँ। रंग के भे से मरुआ दो प्रकार का होता है, काला और सफेद। काले मरुए का प्रयोग औषधि रूप में नहीं होता और केवल फूल आदि के साथ देवताओं पर चढ़ाने के काम आता है। सफेद मरुआ ओषधियों में काम आता है। वैद्यक में यह चरपरा, कड़ुआ, रूखा और रुचिकर तथा तीखा, गरम, हलका, पित्तवर्धक, कफ और वात का नाशक, विष, कृमि और कृष्ठ रोग नाशक माना गया है।
मरुआ का पेड़ लगाओ, मच्छर भगाओ
बिच्छू का विष
बिच्छू के काटने पर एक कटोरी में ५० ग्राम लाही के तेल को उबालो और उस उबलते हुए तेल में लटजीरा के पौधे को उखाड़ कर और उसका रस निचोड़ कर डालो इससे जो वाष्प निकले उसमें बिच्छूसे कटे हुए भाग की सिकाई करो। शीघ्र लाभ
औषधीय गुण
यह जंगली वनस्पति कई रोगों जैसे बवासीर, फोड़े फुंसी, पायरिया दमा,मधुमेह, विषैले जंतु दंश, पेट दर्द इत्यादि में अपना चमत्कारी प्रभाव दिखाता है| भिन्न भिन्न रोगों में इसे भिन्न भिन्न प्रकार से लिया जाता है जैसे- किसी भी प्रकार के फोड़े फुंसी पर चिचड़ी की पत्ती पीसकर उसमें सरसों का तेल मिलाकर गर्म करके लगाने से फोड़े फुंसी या तो बैठ जाते है या पक कर फूट जाते हैं| चिचड़ी (अपामार्ग) की जड़ की दातुन दांतों के हर प्रकार के रोगों में चमत्कारी प्रभाव दिखाता है| बवासीर रोग में चिचड़ी के सात आठ पत्ते, उतने ही काली मिर्च के दाने को पीसकर दिन में एकबार एक कप पानी में डालकर पीने से बवासीर का खून निकलना बंद हो जाता है| सुगर रोग में इसके पत्ते का रस नियमित सेवन करना श्रेयष्कर होता है| विषैले जंतुओं के काटने पर चिचड़ी के पत्ते व जड़ का रस पिलाने व काटे हुए स्थान पर लगाने से विष का प्रभाव समाप्त होने लगता है| इसी प्रकार चिचड़ी के विभिन्न प्रकार से प्रयोग से पेट का दर्द, दमा, अफारा, खांसी इत्यादि में भी अपना लाभकारी प्रभाव दिखाते हैं| वनौषधियों के साथ-साथ अगर आसन प्राणायाम आदि यौगिक क्रियाओं का भी प्रयोग किया जाये तो लाभकारी प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है|
अमरंथस ब्लिटम
हालांकि खेती नहीं की जाती है, लेकिन यह पौधा जंगली से इकट्ठा किया जाता है और दुनिया के कई हिस्सों में खाया जाता है। [
अमरन्थस वरीडिस को उबले हरे के रूप में खाया जाता है दुनिया के कई हिस्सों में या सब्जी के ।
में पूर्वोत्तर भारतीय के राज्य मणिपुर , यह भी कहा जाता है चेंग क्रुक ; इसे दक्षिण भारत में सब्जी के रूप में भी खाया जाता है , विशेष रूप से केरल में , जहां इसे कुपचेचेरा कटुहार के नाम से जाना जाता है । यह बंगाली व्यंजनों में एक आम सब्जी है , जहां इसे कहा जाता है नोट शाक ("शाक" का अर्थ पत्तेदार सब्जी) कहा जाता है। यह ओडिया भोजन में सागा के रूप में उपयोग किया जाता है, जिसका नाम ग्रामीण क्षेत्रों में कोसीला सागा या मार्शी साग है।
तुलसी (पौधा)
तुलसी - (ऑसीमम सैक्टम) एक द्विबीजपत्री तथा शाकीय, औषधीय पौधा है। यह झाड़ी के रूप में उगता है और १ से ३ फुट ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ बैंगनी आभा वाली हल्के रोएँ से ढकी होती हैं। पत्तियाँ १ से २ इंच लम्बी सुगंधित और अंडाकार या आयताकार होती हैं।
तुलसी का औषधीय महत्व
भारतीय संस्कृति में तुलसी को पूजनीय माना जाता है, धार्मिक महत्व होने के साथ-साथ तुलसी औषधीय गुणों से भी भरपूर है। आयुर्वेद में तो तुलसी को उसके औषधीय गुणों के कारण विशेष महत्व दिया गया है। तुलसी ऐसी औषधि है जो ज्यादातर बीमारियों में काम आती है। इसका उपयोग सर्दी-जुकाम, खॉसी, दंत रोग और श्वास सम्बंधी रोग के लिए बहुत ही फायदेमंद माना जाता है।
म्रत्यु के समय तुलसी के पत्तों का महत्त्व
मृत्यु के समय व्यक्ति के गले में कफ जमा हो जाने के कारण श्वसन क्रिया एवम बोलने में रुकावट आ जाती है। तुलसी के पत्तों के रस में कफ फाड़ने का विशेष गुण होता है इसलिए शैया पर लेटे व्यक्ति को यदि तुलसी के पत्तों का एक चम्मच रस पिला दिया जाये तो व्यक्ति के मुख से आवाज निकल सकती है।
रासायनिक संरचना
तुलसी में अनेक जैव सक्रिय रसायन पाए गए हैं, जिनमें ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स प्रमुख हैं
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